काग़ज़ भी मैं, कलम भी तो मैं हूं।
डर रहा है जो, मैं हूं, डराता भी मैं हूं॥
आंखों देखी, कानों सूनी, अनबनी बातों का
मंदिर भी मैं, कूड़ेदां भी तो मैं हूं ॥
बस कुछ चंद लकीरों के जरिए,
ज़िंदगियां जी जाता साहिर भी मैं हूं॥
सब निगल जाता समंदर भी मैं,
कश्ती भी मैं, मुसाफिर भी मैं हूं॥
जन्नत कहीं है अगर तो मैं हूं ।
जहन्नुम गर है तो ज़हन मैं हूं ॥
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