पानी में बुलबुलों के फव्वारे सी,
ज़िंदगी मेरी मानो कोई गुब्बारे सी।
किसकी सांसोंसे ज़िंदा हूं, जानता नहीं,
कैसे, क्यों और कब तक, यह भी पता नहीं,
वजूद भूले कोई रेगिस्तान के बंजारे सी,
ज़िंदगी मेरी मानो कोई गुब्बारे सी॥
ज़मीं पर रहकर आसमान कैसे छू लूंगा?
आसमां में अकेला कब तक रह लूंगा?
बारिश में, ज़मीं में दब गए अंगारे सी,
ज़िंदगी मेरी मानो कोई गुब्बारे सी॥
डोरी से बंधा हूं जो अपनों से, छोड़ूं कैसे?
ऊंचा जाऊं या ना जाऊं, मौत से लड़ूं कैसे?
धूप में आताशबाजी के कोई नज़ारे सी,
ज़िंदगी मेरी मानो कोई गुब्बारे सी॥
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