आज जब अपनी कहानी लिखने कलम उठाई जैसे,
लगा लिखे शब्दों पर फिर से कलम चल रही थी जैसे।
कल जो ठोकर खाकर घाव मेरे सिर पर पड़ा है,
वैसा ही जैसा पापा के सिर पर कबसे खड़ा है।
वह भी तो अपने कुछ ख़्वाबों को लेकर दूर चले होंगे,
अपना खून सींच अपना जग में नाम बनाते चले होंगे।
वक्त ने उनका भी कई बार साथ नहीं दिया होगा,
जिंदगीभर चुभने वाला मलाल उन्हें भी हुआ होगा।
धूप में स्कूल आते हुए उनकी काया भी जली होंगी,
जब वॉलेट छुपाया था, उन्हें भी कभी डांट पड़ी होगी।
बिल्कुल तो एक नहीं है कहानी, फर्क बस इतना सा है,
अपनों के लिए न जाने कितने मौके गवाएं थे,
और मैं हूं जिसने न जाने कितने अपने गवाएं हैं।
शायद हर कोई कहानी बस थोड़ी एक सी होती है,
कागज़ रह जाता है, कलम जवाब दे देती है ॥
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