हररोज की तरह मैं कमरे में तन्हा सा,
खुद के वजूद के बारे में सोच रहा था।
कोई और भी था, झूठ नाम था उसका।
जो सच नहीं है, वह सब झूठ ही है क्या?
वह परियों की कहानियां सारी,
वह अफसाने जिनमें मौत भी चलती है,
दौड़ती है, बातें करती हैं?
हाथी चींटी के वह सारे चुटकुले,
जिन्हें सुनकर में मायूसी में भी हस उठता था?
और उनका क्या, जो सपने मैंने देख रखे है,
क्या होगा गर सपने मेरे सच हो जाएंगे?
झूठ थे और अब वह सच में बदल जाएंगे?
या फिर वो सपने शायद झूठ नहीं है,
सच और झूठ का इक और भाई भी है?
जो है भी शायद, और शायद नहीं भी,
इक ही क्यों, शायद वो कई है ।
आज जो ज़िंदा है कल वो शायद मर जाएगा,
“वह ज़िंदा है” भी झूठ में बदल जाएगा,
अभी का सच फिर बस सिर्फ अभी के लिए ही सच है?
मुमकिन है वो कल इक अच्छा सा झूठ बन पाएगा।
अब मैं सोच रहा हूं, मुमकिन है जो बैठा हैं,
वह झूठ नहीं है, सच है शायद।
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