डरता रहा हूं आगाजों से इतना, अब डरने का मन नहीं करता ।
चाह बाकी है मंजिल की मगर, अब चलने का मन नहीं करता ॥
बेताब हो रहा था यह पंछी दिल में उड़ने को बचपन से ।
कैद से हो गया ऐसा लगाव, अब उड़ने का मन नहीं करता ॥
बदलना चाहता था मैं पागल, मिटाकर अंधकार पूरे जग का,
नींद आ गई है अंधेरे में, अब जलने का मन नहीं करता ॥
जिंदगी में किसी भी मुसीबत के, रास्ते हो सकते हैं सिर्फ दो ।
फिसलना लगने लगा है आसान, अब डटने का मन नहीं करता ॥
चाहे वह हो कोई तस्वीर, लम्हा, अल्फाज या हो खयालात ।
मिट ही जाने हैं जब, अब बचाने या बनाने का मन नहीं करता ॥
मनाता रहता हूं अपने मन को, कि होता है सब अच्छे के लिए।
है मन झूठ से परेशान, अब मनाए रखने का मन नहीं करता ॥
Leave a Reply