इक खुद दर्द सहकर दूसरे को खुशी दे जाती है
दूसरी खुद भी परेशां, दूसरों को भी कर आती है
मुंह छुपाती रहती है इक लोगों के जाने के डर से
और वो पहचान, वाहवाही दूसरों से करवाती है
मयस्सर होती है इक खुफिया कुछ ठिकानों में
दूजी गम, जाम और आवामो में पाई जाती है
इक में खुला बदन कुछ निहां सा रहता है शायद
मगर ज़ख्म-ए-रूह भरे बाजार में बरहना होती है
इक में वो लम्हा, सूरत भूला नहीं पाते सब लोग
शायर क्या, कविता भी कहाँ याद किसीको होती है
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