इक कमरा साफ़ करने वाले भैया
कमरे में पड़ी हर चीज ठीक चाहते है
छान लेते है हर चीज जो कमरे का हिस्सा नहीं
बांध लेते है वह सब गठरी में सलूकी से
जैसे मां बच्चे के लिऐ मुखवास बांध लेती है
उनकी जगह अभी तय करना लाज़िम नहीं
वक्त की कमी भी तो है थोड़ी सी
कहीं दूर उनका इंतजार हो रहा होगा
कमरे के बाहर उन हर इक चीज की
कुछ दास्तान रहती ही होगी शायद
भैया भी गठरी की किसी चीज से लगते है
मैं जब भी घर जाता हूं,
खुद को कुछ उनके जैसा पाता हूं
गठरी खुलती है जब वापिस आने के बाद,
इक सवाल अक्सर झांकता रहता है अंदर से
‘बाहर रहकर भी कोई चीज़ कमरे के काबिल रह सकती है क्या?’
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