जैसे नाव में बैठकर दरिया खोजता रहता हूं
मैं बस अपने होने का मकसद सोचता रहता हूं
याद-ए-माजी मेरे आज को गुमराह करता है
जो है नहीं उस जख्म को खरोंचता रहता हूं
अपनी आजादी से कोई तो रिहा करो मुझे
मैं पतंग अपनी ही डोर को नोचता रहता हूं
बुनियाद-ए-इमारत को मजबूत रहना पड़ता है
वो सोचते है मैं अपने बारे में सोचता रहता हूं
चंद आखिरी दिन है, फिर कोई और होगा ‘हसित’
किसी और के खातिर मैं फर्श पोंछता रहता हूं
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