खुश तो नहीं हूँ शायद, मगर उदास भी नहीं
हर दिन नया भी है और कुछ खास भी नहीं
हालातों से मजलूम रहती है दो दो ज़िन्दगी अब
गुनाह-ए-इश्क़ ऐसा, रिहाई का आगाज़ भी नहीं
ढूँढ लेते हैं वो गलियों, चौराहों में भी अपनापन
बिखरे है हम ऐसे, अपने शहर पर नाज़ भी नहीं
पंछी और घोंसले भी महसूस करते होगे हिज्र पर
महफ़िल वही है मगर अब सुर-ओ-साज़ भी नहीं
कैसे मोड़ पर आ पहुंची नजदीकियां हमारी,
तुम्हारा ही हूँ लेकिन तुम्हारे पास भी नहीं
– हसित भट्ट
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