Category: Hindi

  • हमारे लिए थे

    न हम जानते थे, न वह जान पाऐ,जो लम्हे कहीं पर हमारे लिए थे । है दिल कुछ गिला‌ सा, चंद बुंदों के खातिर,और बारिश के मौसम हमारे लिए थे । कलम रुक गई है, या अल्फाज़ छुप गए हैं,और जज़्बातों के सैलाब हमारे लिए थे । शायद गज़लें भी फिर, बहर में आ जाती,मीठी…

  • कोई गुब्बारे सी

    पानी में बुलबुलों के फव्वारे सी,ज़िंदगी मेरी मानो कोई गुब्बारे सी। किसकी सांसोंसे ज़िंदा हूं, जानता नहीं,कैसे, क्यों और कब तक, यह भी पता नहीं,वजूद भूले कोई रेगिस्तान के बंजारे सी,ज़िंदगी मेरी मानो कोई गुब्बारे सी॥ ज़मीं पर रहकर आसमान कैसे छू लूंगा?आसमां में अकेला कब तक रह लूंगा?बारिश में, ज़मीं में दब गए अंगारे…

  • अखबार सा

    कभी लगता है जग मैं मुझे छोड़सब ज्ञानी है, दुनियादारी समझते हैं,शायद हर रोज़ अखबार पढ़ते है । पर अखबार के बारे में सोचो तो,ज्ञान का भंडार, दुनिया का आईना,पर जिंदगी मानो सिर्फ ईक दिन की,कल उसकी जगह नया अखबार लेगा । और बस कहीं कोने में वह बैठा मिलेगा,कोई एक मामूली कागज़ की तरह…

  • ईक और दिन आज बीत गया

    ईक और दिन आज बीत गयाईक और रात आज जाएगी ।आज फिर दिन शुरू हुआ था दोपहर सेयह बात अब पूरा सप्ताह सताएगी ॥ याद तक नहीं सूरज का ढलना,जिंदगी बस कट रही है, जी नहीं जा रही ।न जाने कब शाम मुझे, बेवजह टहलता पायेगी । पर मना लेता हूं खुद को हर बार,सिर्फ…

  • कहानियां

    वैसे तो इधर-उधर हर जगह देखा है,कुछ कहानियों को मैंने बेमकां देखा है ।चिल्लाहट शुरू रहती है हमेशा उनकी,पर न सुनो तो उन्हें बेजुबान देखा है ॥ भीड़ में टकराती रहती है वैसे सब हररोज,पर बहुत कम कहानियों को समान होते देखा है।वैसे तो वजूद क्या भीड़ में अकेली कहानी का,पर अफसाने से सब का…

  • बिछड़ने से ज़रा पहले

    बिछड़ने से ज़रा पहलेईक बार मश्क ही कर लेते, वैसे ही जैसे हर बार किया करते थे। कि बाहर निकले गर तो करना क्या है, मैं मामा का बेटा बनूंगा या तुम चचेरी बहन। दीवार कूदने में लगी चोट को ढकना कैसे हैं, और पता चल जाने पर कहना क्या है॥ तुम्हारे घर पहली बार…

  • वह भी तो मैं हूं

    काग़ज़ भी मैं, कलम भी तो मैं हूं।डर रहा है‌ जो, मैं हूं, डराता भी मैं हूं॥ आंखों देखी, कानों सूनी, अनबनी बातों कामंदिर भी मैं, कूड़ेदां भी तो मैं हूं ॥ बस कुछ चंद लकीरों के जरिए,ज़िंदगियां जी जाता साहिर भी मैं हूं॥ सब निगल जाता समंदर भी मैं,कश्ती भी मैं, मुसाफिर भी मैं…

  • चश्म-ए- बददूर

    भाई के बारे में बताऊं तो… कद थोड़ा छोटा, रंग ज़रा सा सांवला था,दूर की नजर कमजोर थी, चश्मा लगाता था। मम्मी ना हो तो शैतान, हो तो बेचारा बन जाता था,लड़ाई हो जब भी, में गेंद, वह बॆट बन जाता था। वैसे तो वह हररोज कोई नई शामत ले आता था,कभी गब्बर की खिड़की,…

  • खोज

    आसान तो नही होगा, मालूम था,तुम्हें ढूंढना लाखों की भीड़ में,पर फिर भी, निकलना जरूरी था। उम्मीद कुछ ज्यादा तो नहीं थी, बस खयालात थोड़े मिलते हो,गर ना मिले तो सही, बस कुछ नये हो। उसके साथ वक्त कुछ ऐसे गुज़रे,जैसे रेगिस्तान में दिखे बादल,थोड़ी छांव ना सही, बस थोड़ा भिगो दें। सारी दुनिया भूल जाऊं,…

  • दुनिया : खेल का मैदान

    वो खेल का मैदान जो , न जाने कितने खेलो का जन्मदाता था,अनजाना सा बच्चा आया है, उस भीड़ में खो जाने को अकेला । भाँती भाँती के खेल और भाँती भाँती के लोग,कोई अच्छा, कोई बुरा, पर गया घुल उनमे वह । गिरना, गिराना, फसाद होते रहते हे पल दो पल,रोना, हँसना, जितना, हारना…