अखबार सा

कभी लगता है जग मैं मुझे छोड़
सब ज्ञानी है, दुनियादारी समझते हैं,
शायद हर रोज़ अखबार पढ़ते है ।

पर अखबार के बारे में सोचो तो,
ज्ञान का भंडार, दुनिया का आईना,
पर जिंदगी मानो सिर्फ ईक दिन की,
कल उसकी जगह नया अखबार लेगा ।

और बस कहीं कोने में वह बैठा मिलेगा,
कोई एक मामूली कागज़ की तरह ।
कोरा भी नहीं कि लिखने के काम आए,

शायद कुछ सोचता हुआ,
अपनी हालत को कोसता हुआ ।
मौत के सपने देखता होगा ।

क्या नाव बनकर बारिश के पानी में गल जाएगा ?
या विमान बन किसी झाड़ी में फंस जाएगा ?
या कचरे के ढेर गिनते गिनते कहीं अंत में जल जाएगा ?
उसके ज़हन में छुपा ज्ञान का भंडार उसको क्या काम आएगा?

लगता है दुनिया में बाकी सब ज्ञानी है,
बस में ही हूं एक बिखरा सा, अखबार सा ।


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