Category: Non-technical
जैसे अपनी पीढ़ी से पिछली पीढ़ी को बुनता हूं
जैसे अपनी पीढ़ी से पिछली पीढ़ी को बुनता हूं,मैं अब अपने लफ़्ज़ों में सिर्फ़ बुज़ुर्गों को सुनता हूं। अब लगता है, ज़िंदगी कोई पुरानी कहानी है,जैसे बारिश की बूंदों में सागर का पानी है। कहानियों से परे, अब सिर्फ़ असलियत में मैं जीता हूं,दिल में फिर भी भरोसा है, वाटिका की मैं सीता हूं। हर…
When Aliens Visit: A Tale of Empathy and Misunderstanding
In the vast expanse of the universe, where countless planets spin in the endless cosmic dance, curiosity drives the exploration of new worlds. Aliens from distant galaxies often visit Earth, intrigued by its diverse ecosystems, complex societies, and the myriad challenges faced by its inhabitants. One day, a fleet of interstellar ships set out from…
Notes from Charlie Munger’s commencement speech
13 ideas from Charlie Munger’s speech
फिर याद आई
वक्त की फिजाएं चली तो फिर याद आईखुद से नजरे मिली तो फिर याद आई कर तो दिए थे सारे किस्से वादे दफनवहां जब कली खिली तो फिर याद आई रिश्तों की डोर उसे ऊंचाई से रोकती थीआंधी पेड़ में ले चली तो फिर याद आई जलता आ रहा हूं बच्चों की आजादी सेशाम समंदर…
कैसे
वक्त की गाड़ी रुकती है पल भर, ठहरोगे कैसेखुश्बू से लम्हें बिखरते है मगर, समेटोगे कैसे ख्वाबों की दुनिया की अंदरूनी हकीकत यही हैघूंघट में मुस्कुराती होगी जो खुशी, ढूंढोगे कैसे बीज में वृक्ष, मोड़ में सफर देख लेते हो अगरहर लम्हें में बसी जिंदगी से, आंख मुंदोगे कैसे जिद्दी है लम्हें, कभी दिल से…
खुश तो नहीं हूँ शायद
खुश तो नहीं हूँ शायद, मगर उदास भी नहींहर दिन नया भी है और कुछ खास भी नहीं हालातों से मजलूम रहती है दो दो ज़िन्दगी अबगुनाह-ए-इश्क़ ऐसा, रिहाई का आगाज़ भी नहीं ढूँढ लेते हैं वो गलियों, चौराहों में भी अपनापनबिखरे है हम ऐसे, अपने शहर पर नाज़ भी नहीं पंछी और घोंसले भी…
Pearls of Wisdom: Insights from the Elderly (Ages 70-100)
In a world often fixated on the hustle and bustle of daily life, the wisdom of the elderly can serve as a guiding light, illuminating the path to a more meaningful existence. Recently, I was going through a vlog series where the host asks individuals aged 70 to 100, about their reflections on life. Here…
जैसे नाव में बैठकर दरिया खोजता रहता हूं
जैसे नाव में बैठकर दरिया खोजता रहता हूंमैं बस अपने होने का मकसद सोचता रहता हूं याद-ए-माजी मेरे आज को गुमराह करता हैजो है नहीं उस जख्म को खरोंचता रहता हूं अपनी आजादी से कोई तो रिहा करो मुझेमैं पतंग अपनी ही डोर को नोचता रहता हूं बुनियाद-ए-इमारत को मजबूत रहना पड़ता हैवो सोचते है…
शायद यह खुशनसीबी ही है, गुमनाम हूं
शायद यह खुशनसीबी ही है, गुमनाम हूंसिर्फ अपने पसंदीदा लोगों का इनाम हूं लोग सब जानेंगे, पहचान पाएंगे नहींमिलेंगे खुशी से मगर काम आएंगे नहीं इक आवाम होगी जो जलती होगीइस खोज में कि कब गलती होगी हां, सपने सब सच अपने हो जाएंगेअधूरा ख्वाब भी किसी के बन जाएंगे अभी अपनों के लिए वक्त…
ज़रूरी था
होठ फड़फड़ाते रहे मगर कहना ज़रूरी थादबी उस बुंद का आंख से बहना ज़रूरी था बहुत उम्मीद लगाए बैठे थे ज़माने से बचपन मेंअसलियत जानने घर से निकलना ज़रूरी था ऐसा नहीं है कि हार अब रुला नहीं पाती मुझेजानता हूं मूरत का हर घाव सहना ज़रूरी था गम की गैर मौजूदगी में खुशी मायूस…