वो खेल का मैदान जो , न जाने कितने खेलो का जन्मदाता था,
अनजाना सा बच्चा आया है, उस भीड़ में खो जाने को अकेला ।
भाँती भाँती के खेल और भाँती भाँती के लोग,
कोई अच्छा, कोई बुरा, पर गया घुल उनमे वह ।
गिरना, गिराना, फसाद होते रहते हे पल दो पल,
रोना, हँसना, जितना, हारना भी चलता रहता हे,
पर अब, हार सही नही जाती ।
पता नही ये निम्न लगनेवाला खेल,
अचानक, इतना मोहित क्यूँ कर रहा है?
पास में वो वृक्ष, फैलाए बेठा हे अपनी घटा ,
देने को मुझे छाव, न जाने कबसे,
पर में व्यस्त हु अपने ही खेल में,
उम्मीद और ख्वाहिश में जितने की
अचानक, याद आती हे माँ,
अब तो डर सा लगने लगा हे उसका,
गर आ गयी तो? खेल अधूरा ही रह जाएगा,
अभी तो मुझे खेलना हे, बहुत सारा ।
गर बन भी गया सिकंदर किसी खेल का,
कुछ खेलो की तो कमी नही हे यहाँ ।
थक गया हे अब, खेलना है पर अभी भी,
दूसरा खेल, फिरसे वही जितने का नशा ॥
आती हे माँ घर ले जाने को,
की थका हुआ बच्चा आराम कर सके,
के कल फिर से, पूरे मन से खेल सके,
पर माँ अब अच्छी लगने लगी हे फिरसे ।
कल फिर से में घूम रहा हूँगा कोई दुसरे मैदान में,
बने थे कई दोस्त, पर लम्बी नींद के बात अब कोई याद नही ।
अब कोई फर्क नही पड़ता, की पिछले दिन वो,
कितनी बार जीता था, या कितनी बार हारा ।
क्या पाया हे सन्मान तुमने या सिर्फ नफरत,
जरुरी ये हे, की क्या सिखा तुमने अपने कल से ॥
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