चश्म-ए- बददूर

भाई के बारे में बताऊं तो…

कद थोड़ा छोटा, रंग ज़रा सा सांवला था,
दूर की नजर कमजोर थी, चश्मा लगाता था।

मम्मी ना हो तो शैतान, हो तो बेचारा बन जाता था,
लड़ाई हो जब भी, में गेंद, वह बॆट बन जाता था।

वैसे तो वह हररोज कोई नई शामत ले आता था,
कभी गब्बर की खिड़की, तो कभी टिचर से लडाई,

कभी बहार जाने के फंडे या मुझे रूलाने के फंदे।
पर मिट्टी सा था, बुंदों में खूब महक जाता था।

पर जैसे चिड़िया पर आने के बाद नहीं रूकती,
सफलता चख जाने पे ख्वाहिशें नहीं रूकती,

निकलना ही था उसे आखिर, अपने ख्वाबों को छूने।
वैसे तो हिसाब किताब में अच्छा था, पर समझा न था कि

ख्वाहिशों की कीमत घर पे कोई जिंदगी भर चुकाता रहेगा।
सच में दूर की नजर कमजोर थी, अच्छा था चश्मा लगाता था॥


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