वक्त में वापिस जाऊं तो इतना खुद को समझाना है
मकसद कुछ ढूँढना नहीं, खुद ही कुछ बन जाना है
गहराई में दबा हुआ बीज खुद को समझना चाहेगा
टूटेगा अंदर से लेकिन फिर इक पौधा बन जाएगा
सर्द की धूप जो बहलाती है, गर्मी में दर्द दे जाती है
धूप से रिश्ता समझेगा जब खुदको भीगा पाएगा
अब पैर थोड़े जकड़ाते है, उतना मचल नहीं पाते है
नए हाथ लहराएगा तब पुष्प नया आ जाएगा
अब भंवरे भी मंडराते है, लोग फूल चुंट जाते है
कैसे बचना है समझेगा, खुदको कठोर अब पाएगा
सख़्त हुआ है बाहर से, मगर दिल नर्म रह जाएगा
दुःख किसी का देखेगा, और शरण उन्हें दे जाएगा
अब बच्चे छांव में गाते है, पंछी भी खूब किलकाते है
थका हुआ हर राहगीर अब फल से तृप्ति पाएगा
जानने की ज़िद छोड़ो, वक्त को क्यों गंवाना है
बीज भी वक्त से पहले कल्पवृक्ष न बन पाएगा
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